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Sunday 7 August 2016

गाँव की ओर

स्कूल की शिक्षा पूरी हो चुकी थी और कॉलेज जाने के बीच कुछ अन्तराल था. सो कुछ समय गाँव मे रहने का मन बना लिया. खादी के एक झोले में टूथब्रश डाला, कुछ कपड़े डाले आैर बस गाँव जाने की तैयारी हो गई. पैकिंग आसान तो यात्रा आसान.

मौसम तो गरमी का था पर पहाड़ी गांव होने के कारण दोपहर बाद ठंडक रहती है. लैंसडाउन से बहुत दूर नहीं है. लैंसडाउन कभी ब्रिटिश वायसराय का 'समर रेसीडेंस' हुआ करता था पर अब वहां फ़ौज की काफी बड़ी छावनी है. एक महीने के लिए हमारी भी 'समर राजधानी' गाँव में बसेगी ! गाँव में ज्यादा घर नहीं हैं बस दस बारह घरों का छोटा सा गांव है. घर ढलान पर हैं और आस पास सीढ़ीनुमा खेत हैं घर से दूर नीचे घाटी में नदी दिखाई देती है.

गाँव जाने के लिये रेल की सवारी रात दिल्ली स्टेशन से शुरु हुई अौर तड़के कोटद्वार स्टेशन पर खत्म हो गई.  कोटद्वार एक छोटा सा शहर है जो ऊपर पहाड़ों पर जाने का द्वार है. यहाँ से लैंसडाउन, पौड़ी और श्रीनगर की ओर जा सकते हैं. यूँ कहें की कोटद्वार पहाड़ों की तलहटी याने foothills में बसा है.  इससे आगे पहाड़ी सफ़र के लिये बस, जीप या टैक्सी आसानी से उपलब्ध है.

पहाड़ियाँ और घाटियाँ 

कोटद्वार मुख्य रूप से ऊपर के पहाड़ी लोगों का बाज़ार है. मैंने भी बाज़ार से रास्ते के लिये गुड़, भुने चने व लड्डू ले लिये. खुद भी खाएंगे और गांव के बच्चों को भी खिलाएंगे. बस स्टॉप नजदीक ही था. जब बस में सवारियां लद गयीं और गढ़वाली गाने बजने लगे तो लगा की गांव पास आ गया है।

एक घंटे के सफ़र में ड्राइवर ने कई गढ़वाली गीत सुनवा दिए. इन लोक गीतों का अपना ही मज़ा है. ये गीत या तो प्रेम रस पर, किसी फ़ौजी की शहीदी पर या फिर सास बहु के किरदारों पर होते हैं. इनमें लोकल पहाड़ी वाद्यों का संगीत मजेदार लगता है. एक गीत 'कन भग्याना मोटर चली सरा-रारा प्वां प्वां' अभी भी कानों में गूँज जाता है तो चेहरे पर मुस्कराहट आ जाती है  साथ ही खिड़की से हरे भरे पहाड़ और जंगल नज़र आने लगे ठंडी हवा के झोंकों ने दिल्ली की धूल भरी गर्मी को भुला दिया. पर बस के हिचकोलों से कमर दोहरी हो गई. बस जब ऊपर की ओर मोड़ काटती तो लगता कि हो गयी जय राम जी की !

ऊँची नीची राहें 

ख़ैर एक घंटे के सफ़र के बाद ऊपर सड़क पर अपने गांव के नज़दीक उतर लिये. अपना झोला कन्धे पर डाला और सड़क के किनारे थोड़ा चहल कदमी कर के पैर सीधे किये. ठंडी और ताज़ी हवा में गहरी और लम्बी साँसें ली. अब उस पगडण्डी पर नज़रें टिका दी जिस पर पौन घंटा नीचे की तरफ चलना होगा.

सुबह की हवा में ठंडक थी, आस पास सुनसान बियाबान था और दूर दूर तक न कोई आदम न आदम जात. नीचे जाती पगडण्डी कहीं पथरीली थी कहीं मिट्टी वाली. सालों से लगातार उस पर आवाजाही के कारण पत्थर चिकने हो गए थे और पैर फिसल रहा था.

कुछ देर के बाद मोड़ लेते ही चीड़ का घना जंगल शुरु हो गया। चीड़ के ऊँचे लम्बे पेड़ पहाड़ियों को जकड़े खड़े थे. हवा में चीड़ की एक ख़ास महक थी. इन पेड़ों के पत्ते सुइयों जैसे होते हैं जिनमें से हवा बहने की हलकी सी सरसराहट आ रही थी. तेज़ हवा आती तो कभी सीटी बजती सुनाई पड़ रही थी. मन एकदम तरोताज़ा हो गया. एक पत्थर पर बैठ कर सुस्ताने लगी. सुबह से कुछ खाया भी नहीं था तो अब गुड़ चने का आनंद लिया जाए. अपना झोला झाड़ी पर लटकाया और वही बैठ गई. खा पीकर शरीर में चेतना आ गयी.

दूर दूर तक कोई नहीं था बस एकदम सुनसान. कभी कभी पक्षियों की आवाज़ या फड़फड़ सुनाई पड़ रही थी. पहाड़ के एक तरफ़ घना जंगल, दूसरी ओर एक गांव और सामने नीचे सीढ़ीनुमा खेत थे. ठण्डी हवा के झोंको का आनन्द लेते हुए नीचे ढलान की तरफ़ चल पड़ी. ज़मीन चीड़ की सुई जैसी पत्तियों से ढकी थी. पत्तियों पर चलने से कहीं कहीं पैर फिसल रहा था. जिम कोर्बेट अभयारण्य भी इन पहाड़ीयों से मात्र दस पंद्रह किमी दूर है सो जंगली जानवर यदा कदा टहलने भी आ जाते हैं - ख़तरा !

रास्ता अब सीढ़ीनुमा खेतों और फलदार पेड़ों के बीच से होकर गुजर रहा था. एक के बाद एक खेत उतरते हुए पगडण्डी गोलाई में घुम गई और सामने पथरीली खड़ी उतराई आ गयी. नीचे पानी की एक पतली धारा बह रही थी. उस तरफ उतरना शुरु किया तो लगा पुरा वज़न पंजो पर आ गया है. चढ़ाई चढ़ना तो मुश्किल है ही उतरना भी कम मुश्किल नहीं है.

बहुत कठिन है डगर गाँव की  

नीचे पानी के पास पहुँचते ही जूते खोल कर पैर पानी में डाल दिये. हाथ मुँह धो कर ताजगी आ गयी. बैठे बैठे विचार आता रहा कि यहाँ का जीवन कितना कठिन है. पानी की धारा को लांघ कर फिर नीचे उतरना शुरु किया. अब गांव के घर नज़र आने लगे थे और कुछ कुछ आवाज़ें भी सुनाई पड़ने लग गई थी. चूँकि गाँव में आने जाने वाले कम होते हैं इसलिए नए आने वाले पर सबकी नज़र रहती है. दूर से ही ताई ने देखा कोई लड़की आ रही है. तुरंत हथेलीयों से आँखों पर दूरबीन बनाई और एकटक देखती रही. फिर पहचान भी गई. एक सेकंड में खबर गांव में फैल गई.

गांव के इस छोर पर पहला ही मकान हमारा है. जब तक वहां पहुंचती गाँव के बच्चे व बड़े बूढ़े पहले ही इकट्ठे हो चुके थे. थोड़ी देर के लिए शांत से गांव में शोर मच गया. बच्चे हाथ लगा लगा कर शोर मचाने लगे,
- बुआ आ गई !
- दीदी आ गई!
- कन तेर बोई बुबा न अकेला भेजी ( तेरे माँ बाप ने अकेला भेज दिया ) ?
- डोर नी लग ( डर नहीं लगा ) ?
- भलू कार ,पढया छिन ,अपड़ देस देखण चैंद ( भला किया, पढ़ी लिखी है, अपना देस देखना चाहिए ) !
- ख़ूब बणिया रऔ ( खूब सुखी रहो ) !

बड़ों के पैर छुए, बच्चों को गुड़ चने बांटे तब तक चाय आ गयी.

बुआ के साथ 



- गायत्री, नई दिल्ली.



3 comments:

Harsh Wardhan Jog said...

https://jogharshwardhan.blogspot.com/2016/08/blog-post_7.html

Subhash Mittal said...

पहाड़ी गाँव का सफर तो मजेदार होता ही है।

Harsh Wardhan Jog said...

धन्यवाद मित्तल साब.