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Saturday 7 October 2017

विपासना मैडिटेशन का आठवाँ और नौंवा दिन

मैडिटेशन के आठवें दिन आने तक आश्रम की दिनचर्या के अभ्यस्त हो गए थे. सुबह चार बजे की घंटी बजते ही बिस्तर छोड़ देना और साढ़े चार बजे की पहली मैडिटेशन क्लास से लेकर रात साढ़े नौ तक ध्यान लगाना और ठीक 10 बजे तक कुड़क जाना. ये कार्यक्रम अब पटरी पर आ गया था. पहली बार के शिविर में उकताहट और झुंझलाहट ज्यादा थी पर दूसरे शिविर में घट गई थी. फिर भी एक घंटे की ध्यान मुद्रा में पांच दस मिनट ऐसे आ ही जाते थे जिसमें मन विचलित हो जाता था. एक कारण तो शारीरिक थकावट थी. दूसरा ये सवाल बार बार मन में उठाता था कि इस वक़्त किये जाने वाली क्रियाओं में और गौतम बुद्ध के उपदेशों में सामंजस्य है या नहीं और कैसे होगा ? गोयनका जी का शाम का विडियो प्रवचन बढ़िया होता है पर कई चीज़ें उस वक़्त नहीं समझ पाया. और चूँकि वीडियो लेक्चर था इसलिए कोई प्रश्न पूछना संभव नहीं था. मुझे लगा की पढ़ कर आना चाहिए था.

गौतम बुद्ध के उपदेशों में कहा गया है की जब भी मन( या माइंड या चित्त ) में क्रोध, लोभ, द्वेष, मोह, पश्चाताप, बेचैनी, उदासी वगैरा जैसी भावनाएं आती हैं तो सांस की रफ़्तार  प्रभावित हो जाती है. साथ ही शरीर में कुछ हलचल या संवेदनाएं होने लगती हैं. ये संवेदनाएं सुखद या दुखद या neutral( असुखद-अदुखद) हो सकती हैं जैसे की सिहरन, गला भर आना, आंसू आ जाना, भय से ठंडा पसीना आ जाना, क्रोध में आँखें लाल हो जाना, रौंगटे खड़े हो जाना, चेहरे पर मुस्कान आ जाना इत्यादि. अभ्यास करते करते और बारीक संवेदनाएं भी पता चलती हैं.

अब अगर किसी सुखद संवेदना से अगर आप जुड़ते हैं तो  सुखद अनुभूति होती है और दुखद संवेदना से चिपके तो दुखद. जुड़ाव होने से शरीर में कुछ जैविक( bio-chemical) क्रियाएँ शुरू हो सकती हैं. फिर विचार बनने लगते हैं और फिर कोई कर्म शुरू होने लगता है. ये कर्म कोई न कोई नतीजा लाते हैं चाहे सुखद हो या दुखद. इस तरह से बात आगे बढ़ती जाती है. पर अगर किसी संवेदना से नहीं जुड़े तो वो संवेदना स्वत: नष्ट हो जाती है.

पर संवेदना का आने जाने का सिलसिला जारी रहता है रुकता नहीं है क्यूंकि हमारी पांच इन्द्रियां और मन कुछ ना कुछ हरकत करते रहते हैं. कभी एकांत में एकाग्र चित्त बैठ कर इस मानसिक क्रिया को देखेंगे तो लगेगा कि इस छोटी सी बात में याने संवेदना के आने और जाने में गहरा अर्थ छुपा हुआ है. यह बात पढ़ कर, सुन कर या बहस कर के नहीं बल्कि स्वयं अभ्यास करके समझनी पड़ेगी. और इस शिविर में हम यही कर रहे थे.

मान लीजिये की दस साल पहले किसी दोस्त ने आपको बुरा भला कहा था और गालियाँ दी थी और उसके बाद दोनों के रास्ते अलग अलग हो गए थे. आज वो इतने समय बाद सामने से निकला पर उसने आपको नहीं देखा ना ही कोई बातचीत हुई. उस एक क्षण में आपके अंदर क्या क्या संवेदनाएं आ सकती हैं - क्रोध, खीज, उलाहना, दुःख, ग्लानी, खुद पर दया, उस पर दया ? इन संवेदनाओं के आधार पर आप क्या क्या कर सकते हैं - गाली देना, पत्थर मार देना, अपने को कोसना, मुंह फेर लेना, सर झुका लेना, वापिस मुड़ जाना, उसे माफ़ कर देना या फिर इन सब में उलझ जाना या कुछ भी ना करना ? क्या इन संवेदनाओं में से कोई एक या सभी को चिपका लेंगे या नष्ट होने देंगे ?

आठवें दिन कुछ देर बारिश हुई तो देखा की कैंपस में खड़ी अपनी कार भी बारिश में धुल रही है. बहुत धूल जम गई थी गाड़ी पर चलो ये काम ठीक हुआ. मौसम भी ठंडा और सुहाना हो गया था. उसके बाद जब ध्यान में बैठे तो काफी देर बाद मन में ख्याल आया कि गाड़ी ग्यारह दिन तक चली नहीं है और बैटरी भी पुरानी है तो स्टार्ट ना हुई तो ? बैटरी बैठ गई तो ? फिर मन बनाया की जो ऑफिस चला रहे हैं उनके पास पर्स, मोबाइल और चाबियाँ जमा हैं उनसे निवेदन कर के चाबी ले कर एक बार स्टार्ट कर लूँ ताकि बैटरी चार्ज हो जाए और वापसी में दिक्कत ना हो. या वो ही एक बार स्टार्ट कर दें. वैसे भी आश्रम शहर से दूर जंगल में था. जब ऑफिस पहुंचा तो मान्यवर ने बात करने से ही मना कर दिया वो भी इशारे में होंटों पर ऊँगली रख कर. खैर ग्यारहवें दिन गाड़ी चालू करने में कोई परेशानी नहीं हुई.
पर इस छोटी सी घटना पर विचार करें तो लगेगा की मन कैसे कैसे विचलित हुआ ? किस तरह से मन में संवेदनाएं जागी ? हम करने क्या आए थे और विचार कहाँ कहाँ और कैसे कैसे दौड़ते रहे ? मन के बारे में गौतम बुद्ध ने ( त्रिपिटक > सुत्त पिटक > खुद्दक निकाय के धम्मपद में ) कहा है:

फंदनं चपलं चित्तं दुरक्खं दुन्निवारयं I
उजुं करोति मेधावी उसुकारो'व तेजनं II

अर्थात चित्त क्षणिक है, चपल है, इसे रोके रखना कठिन है और निवारण करना भी दुष्कर है. ऐसे चित्त को मेधावी पुरुष उसी प्रकार सीधा करता है जैसे बाण बनाने वाला बाण को.
 
तो शिविर में हम मन को सीधा करने की कवायद कर रहे थे. मन को अनुशासन में लाना आसान नहीं है साहब. लगातार और कड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी. कई बार ऐसा भी लगा कि अगर ध्यान लगाते हुए किसी मूर्ती या मन्त्र का सहारा होता तो शायद काम आसान हो जाता पर फिर वो विपासना से अलग रास्ता हो जाता.
नौंवे दिन कुछ हल्कापन रहा शरीर में भी और मन में भी. शायद इसलिए कि अंतिम याने दसवां दिन नज़दीक आ गया था और ग्यारहवें दिन छुट्टी मिलनी थी. मन में छुट्टी का विचार आया तो संवेदना जागी - सुखद संवेदना ! चिपकाव ! शरीर में कुछ हरकत हुई याने मुस्कराहट आ गई. इस संवेदना से जुड़ा विडियो चल पड़ा ! घर परिवार की याद आ गई अर्थात कितना मोह था ! ये सुखद संवेदना कब तक रहेगी ?

सुखदायी प्रकृति 



1 comment:

Harsh Wardhan Jog said...

https://jogharshwardhan.blogspot.com/2017/10/blog-post_7.html