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Friday 17 November 2017

घोड़ा गाड़ी

दिल्ली के दम घोंटू प्रदूषण के कई कारण है जिनमें से एक है ट्रकों का धुआं. पुराने ट्रक और मिलावटी डीज़ल का कमाल है ये सब. पर हमारे मेरठ के ट्रांसपोर्टर हैं मुन्ना लाल जिनकी गाड़ी ज़ीरो प्रदूषण वाली है. तड़के पांच बजे से शाम चार बजे तक माल ढुलाई करती है पर कोई प्रदूषण नहीं होता !

मुन्ना लाल की गाड़ी

मुन्ना लाल की उम्र 55 बरस की है और बचपन से ही घोड़े, गाय और भैंस से दोस्ती है. मुन्ना लाल से उनकी घोड़ा गाड़ी के विषय में बातचीत की और इस काम की इकोनॉमिक्स समझने की कोशिश की.
- मुन्ना लाल ज़रा हिसाब किताब तो बताओ अपनी गाड़ी का ? 
- लो जी लिखो बता रा मैं : 
घोड़ी - 20000
लपोड़ी - 4000 ( लपोड़ी याने जीन या काठी जो घोड़ी के पीठ पर कसी जाती है ).
बुग्गी - 10000. और जी भगवान आपका भला करे यो मत लिखियो नूं ई बता रा अक मंदिर का दान और गुड़ चने का परसाद बांट्या पांच सौ रुपे. अब आगे चलो जी रोज का चारा दाना 150 रुपे और सब्जी मंडी के चार फेरे हो गए तो मिले छ सौ रुपे. कदी कदी सादी ब्या या मेले में चली जा तो हजार रुपे भी मिल सकें.

कुल मिला कर मुन्ना लाल की दाल रोटी चल रही है ज़रा सा मक्खन की कमी है. पर ये कमी उसे नहीं बल्कि मुझे महसूस हो रही है ! बहरहाल इस गाड़ी के कई फायदे हैं : ड्राईवर का ड्राइविंग लाइसेंस नहीं बनवाना पड़ता है, गाड़ी का कोई पंजीकरण नहीं करवाना होता है और इसका एक byproduct भी है खाद जो आजकल बड़ी कीमती है. और जी घणी अच्छी बात है की सम विषम ( odd even ) का कोई चक्कर ना है !




Saturday 11 November 2017

कुल्थी परांठा

उत्तराखंड में एक पहाड़ी दाल काफी इस्तेमाल की जाती है जिसका नाम है गैथ या कुल्थी. इस दाल के भरवां पराठे भी बनाए जाते हैं जो खाने में बड़े ही स्वादिष्ट और पौष्टिक भी होते हैं. इस दाल को लेकर एक गढ़वाली कहावत है : "पुटगी पीठ म लग जैली" याने इस दाल को खाने वाले का पेट पीठ में लग जाएगा ( चर्बी नहीं चढ़ेगी ) !

कुल्थी की दाल का परांठा 
कुल्थी की दाल के और भी नाम हैं जैसे - कुरथी, कुलथी, खरथी, गैथ या गराहट. अंग्रेजी में इसे हॉर्स ग्राम कहते हैं और इसका वानस्पतिक नाम है Macrotyloma Uniflorum. ज्यादातर पथरीली जमीन पर पैदा होने के कारण कुल्थी के पौधे का एक नाम पत्थरचट्टा भी है. संस्कृत में इस दाल का नाम कुलत्थिक है. दाल के दाने देखने में गोल और चपटे हैं और हलके भूरे चितकबरे रंग में हैं. हाथ लगाने से दाने चिकने से महसूस होते हैं.

कुल्थी की दाल 
परांठा बनाने की विधि : चार परांठे बनाने के लिए 250 ग्राम गैथ साफ़ कर के रात को भिगो दें. सुबह उसी पानी में उबाल लें. दाल को ठंडा होने के बाद छाननी में निकाल लें. पानी निथरने के बाद दाल को मसल लें. इसमें बारीक कटा प्याज, हरी मिर्च, हरा धनिया और थोडा सा अदरक कद्दूकस कर के मिला लें. नमक स्वाद अनुसार डाल कर अच्छी तरह से मिला लें. तैयार पीठी से भरवां परांठा बना लें और देसी घी से सेक लें. गरम परांठे को  चटनी और घी या मक्खन के साथ सर्व करें.


 
दाल की पीठी 


भरवें परांठे की तैयारी 

भिगोई दाल के बचे हुए पानी में निम्बू निचोड़ कर सूप बना लें. सूप टेस्टी भी होता है और फायदेमंद भी. इस दाल के साथ राजमा भी मिला कर बनाई जा सकती है.

कुल्थी के गुण : इस दाल में खनिजों के अलावा प्रोटीन, कार्बोहायड्रेट प्रचुर मात्रा में होता है. इस दाल को पथरी- तोड़ माना जाता है. दाल का पानी लगातार सेवन करने से गुर्दे और मूत्राशय की पथरी घुल कर निकलने लग जाती है. इस का एक सरल सा उपाय है की 15-20 ग्राम दाल को एक पाव पानी में रात को भिगो दिया जाए और सुबह खाली पेट पानी पी लिया जाए. उसी दाल में फिर पानी डाल दिया जाए और दोपहर को और फिर रात को पी लिया जाए. ये दाल इसी तरह दो दिन इस्तेमाल की जा सकती है. अन्यथा भी यह किसी और दाल की तरह पकाई जा सकती है. चूँकि ये गलने में समय लेती है इसलिए रात को भिगो कर रख देना अच्छा रहेगा. कुल्थी की दाल का पानी पीलिया के रोगी के लिए भी अच्छा माना गया है. ये दाल उत्तराखंड के अलावा दक्षिण भारत और आस पास के देशों में भी पाई जाती है.


* गायत्री वर्धन के सौजन्य से   *** Contributed by Gayatri Wardhan *


Tuesday 7 November 2017

डुबकी

शादी की तैयारी हो रही थी पर इतने बड़े आयोजन में चुटर पुटर काम तो कभी ख़तम ही नहीं होते. किसी के नए कपड़े आने बाकी हैं, किसी का मोबाइल नहीं मिल रहा, किसी के जूते नहीं मिल रहे, किसी की गाड़ी लेट आई है या फिर हलवाई के मसाले रख कर भूल गए वगैरा वगैरा. रावत जी की मुस्कराहट कभी आती थी और कभी चली जाती थी. शादी ब्याह में ये सब चलता ही रहता है. रावत जी के दो बेटों की शादी हो चुकी थी और ये तीसरी शादी इन की बिटिया प्रिया की देहरादून में हो रही थी. खुश भी थे पर बीच बीच में मुस्कराहट गायब हो जाती थी. इसका कारण इंतज़ाम की दिक़्क़त नहीं थी बल्कि इसका कारण कुछ और ही था - बंगाली दुल्हा. 

सूरत सिंह रावत गढ़वाली राजपूत थे और उत्तराखंड के पौड़ी जिले के रहने वाले थे. दोनों बेटे फौज में थे और अपने अपने परिवारों सहित अलग अलग शहरों में पोस्टेड थे. अब छोटी बिटिया प्रिया ने बारवीं पास करने के बाद सॉफ्टवेयर का कोर्स किया, फिर एमबीए किया और फिर पुणे में नौकरी लग गई. बड़े भैय्या की इत्तेफाकन पोस्टिंग भी पुणे में ही थी. बड़े भाई को रहने के लिए क्वार्टर मिला हुआ था तो रावत जी को अच्छा लगा कि प्रिया फॅमिली में ही रह कर कुछ पैसे भी बचा लेगी. कुछ पैसे रावत जी ने भी बचा रखे हैं तो कुल मिलकर शादी बढ़िया हो जाएगी. पहाड़ी राजपूतों के कई रिश्ते भी आ रहे थे. कुंडली मिलाने का काम भी बीच बीच में चल रहा था हालांकि प्रिया ने अभी शादी के लिए हाँ नहीं की थी. फोन पर कुछ इस तरह से बातें होती थी : 

रावत जी - प्रिया बेटी हाल ठिक ठाक छिं ? नौकरी ठिक चलणि ? ले अपण माँ से बात कर.
मम्मी जी - प्रिया बेटा ब्यो क बारम के सोच ? रिश्ता आणा छिं पत्री भी मिलनी च. कब करण ब्यो ( प्रिया ब्याह के बारे में क्या सोचा है ? रिश्ते आ रहे हैं पत्री भी मिल रही है. कब करना है ब्याह ) ?
प्रिया - के जल्दि होणी तुमथे ? अभी निं करण ब्यो ( क्या जल्दी है तुमको ? अभी नहीं करना है ब्याह ) !
मम्मी जी - लो फोन ही काट द्या ! ब्यो मा अबेर होणी नोनी कतई न बुनी ( लो फोन ही काट दिया ! ब्याह में देर हो रही है लड़की कतई न बोल रही है ).

जनवरी में पता लगा कि प्रिया ऑफिस के किसी सुदीप्तो भट्टाचार्य नाम के लड़के को लेकर भाई के घर आई थी. वहां भाई भाभी ने सुदिप्तो की अच्छी खातिरदारी की और उसके जाने के बाद मम्मी पापा को फोन करके बता भी दिया. बस तब से ही मम्मी जी और पिता जी की परेशानी चालू हो गई थी. कुछ इस तरह के डायलॉग आपस में चल रहे थे :
- पहाड़म क्या रिश्ता नि मिलना छिं जो तू देशिम जाणी छे ( पहाड़ में रिश्ता नहीं मिला जो तू दूसरे देश में जा रही है ) ?
- बोली भाषा फरक च हमुल कण के बचाण ऊँक दगड़ी ( बोली भाषा फर्क है कैसे बातचीत होगी उनके साथ ) ? ?
- न बाबा इन ना केर ( न बाबा ऐसा न कर ) !
- वो बामण छिन हम जजमान ( वो ब्राह्मण है और हम राजपूत यजमान ) ?
- सब पहाड़म थू थू व्हे जाएल ( सारे पहाड़ में थू थू हो जाएगी ).
- कन दिमाग फिर इ नोनिक जरूर बंगालिल जादू केर द्या ( कैसे दिमाग फिर गया इस लड़की का. जरूर बंगाली ने जादू कर दिया ) !

पर प्रिया ने तो अपने फैसले की घोषणा कर दी थी. भाइयों ने भी सपोर्ट कर दिया और अब शादी होने वाली थी. शादी की गहमा गहमी में रावत जी को बीच बीच में गुस्सा आ जाता था. इस लड़की ने ये क्या किया ? बंगालियों में कैसे एडजस्ट होगी ? पेैल दिन ही ईंक टेंटुआ दबैक गदनम धोल दींण छ ( पहले दिन ही इसका टेंटुआ दबा के नदी की धार में डाल देना था ) !
मम्मी की चिंता लेन देन और पूजा पाठ को लेकर थी. पता नहीं दुल्हे की ढंग से पूजा भी की होगी या नहीं. जो भी हो अपनी मान्यताएं तो पूरी करनी थी. लड़की का हल्दी हाथ का कार्यक्रम शुरू हो गया.
रावत जी प्रिया की मम्मी से बोलते रहते,
- तू अपण बोली भाषा ठिक केर ले. यत अंग्रेजीम बच्या या बंगलीम ( तू अपनी भाषा ठीक कर ले. या तो अंग्रेजी में बात कर या बंगाली में ) !
- सुपरि चबाणी कु जाणी के बुनी ? लड़का त हमार जन हि छ पर बचाणा कि कुछ पता नि चलणु ( सुपारी चबा के जाने क्या बोलती है समधन. लड़का तो हमारे जैसा ही है पर बातचीत समझ नहीं आ रही है) ?

उधर प्रिया अपने ही चक्कर में लगी हुई थी. अग्नि के सात फेरे जितनी जल्दी ख़तम हो जाएं उतना ही अच्छा है. वरना रिश्तेदारों की टीका टिप्पणी से मम्मी और पिताजी परेशान हो जाएंगे. उसने पंडित जी को पकड़ा,
- बामण बाडा जी मंगलाचार और बेदी शोर्ट-कट म हूण चेणी. टाइम अद्धा घंटा कुल, ठीक च ( ब्राह्मण देवता मंगलाचार और फेरे शोर्ट-कट में होने हैं. टाइम आधा घंटा है केवल. ठीक है ) ?
इस पर पंडित जी ने पहले ना नुकुर तो की पर मौके की नज़ाकत देखकर तैयार भी हो गए. अपनी पोथी निकाल कर मुख्य मुख्य मन्त्रों वाले पन्नों पर कागज़ के झंडियाँ लगा दीं. फिर सभी मन्त्रों का समय जोड़ा और कहा,
- चल ठिक च अद्धा घंटम कारज व्हे जाल. तू खुस रओ ( चल ठीक है आधे घंटे में कार्य हो जाएगा. तू खुश रह ) !

फेरों का कार्यक्रम पचीस मिनट में ही निपट गया और रावत जी, मम्मी जी और प्रिया ने चैन की सांस ली. मेहमानों ने पकवानों का स्वाद लिया, लिफाफे दिए और सरक लिए. रावत जी और मम्मी जी प्रिया को बार बार धड़कते दिलों से आशीर्वाद देते रहे :
- जा बुबा, जा प्रिया, जा बेटा तू सुखी रओ !
- चिरंजीव रओ !
- हमर पहाड़ियों क नाम न खराब करीं ( हम पहाड़ियों का नाम नहीं खराब करना ) !
- खूब भलु बनि कर रओ ( खूब भली बन कर रहना ) !

प्रिया की विदाई तो हो गई पर पर दिल की बैचेनी विदा नहीं हुई. तीन महीने भी नहीं गुज़रे कि दोनों ने पुणे की टिकट कटा ली. प्रिया से मिलकर दोनों आश्वस्त हो गए. जवांई राजा से मिलकर भी तसल्ली हुई की ठीक ठाक है. जवांई बाबू ने प्रस्ताव किया की सब मिलकर कलकत्ते और खड़गपुर घूम के आते हैं और उनका घर भी देख कर आते हैं. हवाई जहाज में रावत जी और मम्मी जी पहली बार बैठे बहुत से मंदिर देखे, समुंदर देखा, पानी के जहाज में सैर की और समधी समधन से मिले. तबियत खुश हो गई.

लौट कर मम्मी जी ने रावत जी से कहा,
- जवें भलु आदिम च इन खुजाण तुमार बस म भी निं छ. सब त ठिक चलणु हम सुद्धि घबराणा छै. नोनि सुखि च.( जवाईं भला आदमी है इस जैसा खोजना तुम्हारे बस का भी नहीं था. सब ठीक चल रहा है हम यूँही घबरा रहे थे. लड़की सुखी है ).
रावत जी ने जवाब दिया,
- चल भग्यान सीधा हरिद्वार जौला और डुबकी लगौला ( चल भाग्यवान सीधा हरिद्वार चलें और डुबकी लगाएं ) !

हर हर गंगे 

गायत्री वर्धन की कलम से  *** Contributed by Gayatri Wardhan 



Friday 3 November 2017

नवम्बर का नमस्कार

पेंशन लेने वालों के लिए नवम्बर का महीना बड़े काम का महीना है जी. पेंशनर को पेंशन देने वालों को बताना पड़ता है कि हे अन्नदाता मैं हूँ और मैं ज़िंदा हूँ इसलिए हे पेंशनदाता म्हारी पेंशन जारी राखियो ! हे पेंशनदाता मैं लिख कर दे रहा हूँ :

मैं जिंदा हूँ म्हारी नमस्कार स्वीकार कर लीजो !
रजिस्टर में म्हारे नाम की हाज़री लगा दीजो !!

फारम भर दियो है और जी अंगूठा लगा दियो है !
पेंशन म्हारी इब पहली दिसम्बर को क्रेडिट कर दीजो !!

बात ये है जी कि कॉलेज की पढ़ाई ख़तम करने के बाद जब बैंक ज्वाइन किया तो कमर पतली थी, बाल काले थे और दांत पूरे थे. और भागम भाग में जवानी फुर्र हो गई और साठ साल पूरे हो गए. रिटायर होने तक अपने बैंक की सेवा की. जब बैंक से रिटायर होकर बाहर निकले तो बाल सफ़ेद थे, दांत बत्तीस में से पच्चीस बाकी थे और आँख पर मोटा चश्मा था. पर अब इतनी सेवा की तो मेवा भी तो मिलना ही चाहिए क्यों जी?

काले बाल गए और गए सफ़ेद दांत खाते में इब म्हारी फोटू बदल दीजो !
इब चश्में का नंबर छोड़ो बस ओरिजिनल नाम ही साबुत बच्या लीजो !!

जवानी तो हर ली है तैने पेंशनदाता, इब बुढ़ापे का चैन मत हर लीजो !
इब रोटी ना चबती बचे हुए दांतों से, एकाधी बियर की किरपा कर दीजो !!


पेंशन आई टेंशन गई